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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शाबमाला
५६ वाह ! पंचमकालके मुनिने केवलज्ञान के भावामृतको प्रवाहित किया है। पंचमकालमें अमृतकी प्रबल धारा बहा दी है। स्वयं केवलज्ञान प्राप्त करनेकी तैयारी है इसलिये आचार्य भगवान् भावका मंथन करते हैं वे केवलज्ञानके ओरकी पुरुपार्थकी भावनाके बलसे कहते है कि मेरी पर्यायसे शुद्धोपयोगके कार्यरूपमें केवलज्ञान ही आंदोलित हो रहा है। बीचमें जो शुभ विकल्प आता है उस विकल्पकी श्रेणीको तोड़कर शुद्धोपयोगकी अखंड हारमालाको ही अंगीकार करता हूँ। केवलज्ञानका निश्चय करनेकी शक्ति विकल्पमें नहीं किन्तु स्वभावकी ओरके ज्ञानमें है।
_अरिहन्त भगवान आत्मा हैं । अरिहंत भगवानके द्रव्य, गुण, पर्याय और इस आत्माके द्रव्य, गुण, पर्यायमें निश्चयसे कोई अन्तर नहीं है और द्रव्य, गुण, पर्यायसे अरिहन्तका स्वरूप स्पष्ट है-परिपूर्ण है, इसलिये जो जीव द्रव्य, गुण, पर्यायसे अरिहन्तको जानता है वह जीव आत्माको ही जानता है और आत्मा को जानने पर उसका दर्शन मोह अवश्य क्षयको प्राप्त होता है।
__ यदि देव, गुरुके स्वरूपको यथार्थतया जाने तो जीवके मिथ्यात्व कदापि न रहे। इस संबंध मोक्षमार्ग प्रकाशकमें कहा है कि मिथ्यादृष्टि जीव जीवके विशेषणोंको यथावत् जानकर बाह्य विशेपणोंसे अरिहन्त देवके माहात्म्यको मात्र आज्ञानुसार मानता है अथवा अन्यथा भी मानता है। यदि कोई जीवके (अरिहन्तके ) यथावत् विशेषणोंको जान ले तो वह मिथ्यादृष्टि न रहे।
(सस्ती ग्रन्थमाला देहली से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ३२५)
इसी प्रकार गुरुके स्वरूपके संबंधों कहते हैं सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग ही मुनिका यथार्थ लक्षण है, उसे नहीं पहचानता। यदि उसे पहचान ले तो वह मिथ्यादृष्टि कदापि न रहे।
(मोक्षमार्ग प्रकाशक )