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भगवान श्री कुन्दकुन्द-फहान जैन शास्त्रमाला
५७ इस प्रकार जो जानता है उसका मोह 'खलु जादि लय' अर्थात् निश्चयसे क्षयको प्राप्त होता है, यही मोहक्षयका उपाय है।
टीका:--"जो वास्तवमें अरिहंतको द्रव्यरूपमें, गुणरूपमें और पर्यायरूपमें जानता है वह वास्तवमें आत्माको जानता है क्योंकि दोनोंमें निश्चयसे कोई अंतर नहीं है" यहाँपर वास्तवमें जानने की बात कही है। मात्र धारणाके रूपमें अरिहन्तको जाननेकी बात यहाँ नहीं ली गई है क्योंकि वह तो शुभ राग है । वह जगतकी लौकिक विद्याके समान है उसमें आत्मा की विद्या नहीं है। वास्तवमें जाना हुआ तो तब कहलायेगा जब कि अरिहन्त भगवानके द्रव्य गुण पर्यायके साथ अपने आत्माके द्रव्य गुण पर्यायको मिलाकर देखे कि जैसा अरिहन्तका स्वभाव है वैसा ही मेरा स्वभाव है। यदि ऐसे निर्णयके साथ जाने तो वास्तवमें जाना हुआ कहलायेगा । इस प्रकार जो वास्तवमें अरिहन्तको द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूपसे जानता है वह वास्तव में अपने आत्माको जानता है और उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है।
__ अरहन्त भगवानको जाननेमें सम्यग्दर्शन आजाता है। स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है कि "णादं जिणेण णियद........" यहाँ यह आशय है कि जिनेन्द्रदेवने जो जाना है उसमें कोई अंतर नहीं आ सकता इतना जानने पर अरिहन्तके केवलज्ञानका निर्णय अपनेमें आगया । वह यथार्थ निर्णय सम्यग्दर्शनका कारण होता है। सर्वज्ञदेवने जैसा जाना है वैसा ही होता है इस निर्णयमें जिनेन्द्रदेवके और अपने केवलज्ञान की शक्तिकी प्रतीति अंतर्हित है। अरिहन्तके समान ही अपना परिपूर्ण स्वभाव ख्यालमें आगया है, अब मात्र पुरुषार्थके द्वारा उस रूप परिणमन करना ही शेप रह गया है।
सम्यग्दृष्टि जीव अपने पूर्ण स्वभावकी भावना करता हुआ अरिहन्त के पूर्ण स्वभावका विचार करता है कि जिस जीवको जिस द्रव्य क्षेत्र काल भावले जैसा होना श्री अरिहन्तदेवने अपने ज्ञानमें जाना है वैसा ही होगा