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-* सभ्यग्दर्शन आश्रयसे होती है और गुण द्रव्य के साथ एक रूप होता है। अर्थात सम्यग्दर्शन पर्याय श्रद्धा गुणमें से प्रगट होती है और श्रद्धागुण आत्माके साथ त्रिकाल है, इसप्रकार त्रिकाल द्रव्यके लक्ष्यसे सम्यग्दर्शनका पुरुषार्थ प्रगट होता है। जिसने सम्यग्दर्शनको गुण ही मान लिया है उसे कोई पुरुषार्थ करनेकी आवश्यक्ता नहीं रह जाती। सम्यग्दर्शन नवीन प्रगट होनेवाली निर्मल पर्याय है जो इसे नहीं मानता वह वास्तवमें अपनी निर्मल पर्यायको प्रगट करनेवाले पुरुषार्थको ही नहीं मानता।
(८) शास्त्रमें पाँच भावोंका वर्णन करते हुये औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भावके भेदोंमें सम्यग्दर्शनको गिनाया है। यह औपशमिकादिक तीनों भाव पर्याय रूप है इसलिये सम्यग्दर्शन भी पर्याय रूप ही है । यदि सम्यग्दर्शन गुण हो तो गुणको औपशमिकादिकी अपेक्षा लागू नहीं हो सकती और इसलिये औपशमिक 'सम्यग्दर्शन' इत्यादि भेद भी नहीं बन सकेंगे। क्योंकि सम्यग्दर्शन गुण नही, पर्याय है इसलिये उसे औपशमिक भाव इत्यादिकी अपेक्षा लागू पड़ती है।
(६) शास्त्रोंमें कहीं कहीं अभेद नयकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनको आत्मा कहा गया है, इसका कारण यह है कि वहाँ द्रव्य-गुण-पर्यायके भेद का लक्ष्य और विकल्प छुड़ाकर अभेद द्रव्यका लक्ष्य करानेका प्रयोजन है। द्रव्यार्थिकनयसे द्रव्य-गुण-पर्यायमें भेद नहीं है, इसलिये इस नयसे तो दन्यगण-पर्याय तीनों द्रव्य ही हैं। किन्तु जब पर्यायार्थिक नयमे द्रव्य-गुणापर्यायके भिन्न भिन्न स्वरूपका विचार करना होता है तब जो दृव्य है यार गुण नहीं और गुण है वह पर्याय नहीं होती, क्योंकि इन नीनों लमण भिन्न भिन्न हैं। द्रव्य गुण पर्यायके स्वरूपको जैसाका नेमा जाननक बार उसके भेदका विकल्प तोड़कर अभेद आत्म-स्वभावमें उन्मुग्न होनेपर गान अभेद द्रव्य ही अनुभवमें श्राता है, यह यतानेके लिये सनमें हर-गुर. पर्यायको अभिन्न कहा गया है। परन्तु इमसे यह नहीं ममगगा Tri कि सम्यग्दर्शन त्रैकालिक द्रव्य अथवा गुण है, किन्तु मम्मान पाक