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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२३ है बन्धभाव । स्वभाव और बन्धभाव की समस्त संधियों को छेदने के लिये
आत्मा की प्रज्ञारूपी छैनी ही साधन है । ज्ञान और राग दोनों एक' पर्याय में वर्तमान होने पर भी दोनों के लक्षण कभी एक नहीं हुये, दोनों अपने अपने निज लक्षणों में भिन्न २ है-इस प्रकार लक्षण भेद के द्वारा उन्हें भिन्न जानकर उनकी सूक्ष्म अन्तर संधि में प्रज्ञारूपी छैनी के प्रहार से वह अवश्य पृथक् हो जाते हैं।
जैसे पत्थर की संधि को लक्ष्य में लेकर उस संधि में सुरंग लगाने से शीघ्र ही बड़े भारी धमाके के साथ टुकड़े हो जाते हैं उसी प्रकार यहाँ पर सम्यकज्ञान रूपी सुरंग है तथा आत्मा और बन्धके बीच की सूक्ष्म संधि को लक्ष्य में लेकर सावधानी के साथ उसमें वह सुरंग लगानी है, ऐसा करने से आत्मा और बन्ध पृथक हो जाते हैं।।
यहाँ सावधानी के साथ सुरंग लगाने की बात कही है अर्थात् चाहे जैसा राग हो वह सब मेरे ज्ञान से भिन्न है, ज्ञान स्वभाव के द्वारा मैं राग का ज्ञाता ही हूँ कर्ता नहीं इस प्रकार सव तरफ से भिन्नत्व जान कर अर्थात् मोह का अभाव करके आत्मा में एकाग्र करना चाहिये।
___ यहॉपर प्रज्ञारूपी छैनीके प्रहारका अर्थ उसे हाथमें पकड़कर . मारना ऐसा नहीं है। प्रज्ञा और आत्मा कहीं भिन्न नहीं है। तीव्र पुरुषार्थके द्वारा ज्ञानको आत्माके स्वभावमें एकाग्र करने पर रागका लक्ष्य छूट जाता है, यही प्रज्ञारूपी छैनीका प्रहार है ।
सूक्ष्म अन्तर संधिमें प्रहारका अर्थ यह है कि शरीर इत्यादि पर द्रव्य तो भिन्न ही है, कर्म इत्यादि भी भिन्न ही हैं, परन्तु पर्यायमें जो राग द्वेष होता है वह स्यूल रूपसे आत्माके साथ एक जैसा दिखाई देता है, परन्तु उस स्थूलदृष्टिको छोड़कर सूक्ष्मरूपसे देखने पर आत्मा के स्वभाव और रागमें जो सूक्ष्म भेद है वह ज्ञात होता है। स्वभाव दृष्टिसे ही राग और आत्मा भिन्न मालूम होते हैं इसलिये सूक्ष्म अन्तर्दृष्टिके द्वारा ज्ञान और रागका भिन्नत्व जानकर ज्ञानमें एकाग्र होनेपर राग दूर होजाता है।