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~* सम्यग्दर्शन पर्याय में देखने पर बन्ध और ज्ञान एक ही साथ हों ऐसा दिखाई देता है, लेकिन द्रव्य स्वभावसे देखने पर बंध और ज्ञान भिन्न भिन्न दिखाई देते है। ज्ञान तो आत्माका स्वभाव है और वन्ध वाहर जाने वाली विकारी भावना है। (३) बन्धभाव और ज्ञान की भिन्नता ।
बन्धभाव आत्मा की अवस्थामें होता है, वह कहीं पर में नहीं होता। अज्ञानी को ऐसा लगता है कि बन्ध भाव की लगन आत्मा के स्वभाव के साथ-मानों एकमेक हो रही है । अन्तरंग स्वरूप क्या है और बाहर होने बाली लगन क्या है-इसके सूक्ष्म भेदके अभानके कारण जानके मथन में वह लगन मानों एकमेक हो रही है.ऐसा अज्ञानी को दीखता है और इसीलिये बन्धभाव से भिन्न ज्ञान अनुभव में नहीं आता तथा वन्य का छेट नहीं होता। यदि बन्ध और ज्ञान को भिन्न जाने तो ज्ञान की एकाग्रता के द्वारा बन्धन का छेद कर सकता है।
राग अनेक प्रकार का है और स्वभाव एक प्रकार का है। प्रताके द्वारा समस्त प्रकार के राग से आत्मा को भिन्न करना सो मोन का उपाय है।
__ यहाँ यह कहा गया है कि रागऔर आत्मा भिन्न हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि आत्मा यहाँ है और राग उससे दस फुट दूर है, और इस प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा से भिन्नता नहीं हैं, परन्तु वास्तव में भावने भिन्नता है। रागादिक वन्धभाव आत्माके ऊपर ही ऊपर रहते हैं भीतर प्रवेश नहीं करते। अर्थात् क्षणिक राग भाव के होने पर भी यह विमान स्वभाव रागरूप नहीं है इसलिये यह कहा है कि विकार, स्यभावपे. ऊपर ही ऊपर रहता है। विकार और स्वभावको भिन्न जानने ही गोन होना है और उसके लिये प्रज्ञा ही साधन है । प्रनाका अर्थ है सम्यकमान । (४) प्रज्ञानी
समयसार-स्तुति में भी कहा है कि प्रतारपीनी उदय को fir की छेदक होती है । शान का अर्थ है आत्मा का समारपोर 30 l