________________
भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
२६३
भावार्थ:
तत्वोंके विपरीत श्रद्धानरूप मिथ्यात्व - सहित जीव भले ही बाह्य शरीर से मनुष्य हो तथापि अंतर में वह हित-अहित के विवेकसे रहित होनेके कारण भावसे तो पशु है । और जिसे तत्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्र द्वारा चैतन्यकी स्वानुभूति रूपी संपत्ति प्रगट होगई है ऐसा जीव भले ही बाह्य शरीर से पशु हो तथापि, अंतर में हित-अहितका विचार करनेमें चतुर होनेसे मनुष्य समान है ।
देखो, सम्यक्त्वके सद्भावसे पशु भी मानव कहलाते हैं, और उसके अभाव से मानव भी पशु कहलाता है - ऐसा सम्यक्त्वका प्रभाव है । यद्यपि समस्त जीवोंकी अपेक्षासे मनुष्य सबसे अधिक विचारवान माना जाता है, परंतु उसका ज्ञान भी यदि मिथ्यात्व सहित हो तो वह हित-अहितका विचार नहीं कर सकता, इसलिये मिग्न्यात्वके प्रभाव से वह मनुष्य भी विवेक रहित पशु समान हो जाता है, तब फिर दूसरे प्राणियों की तो बात ही क्या की जाय ?
- और पशु मुख्यतः तो हित-अहित के विवेक रहित ही होते हैं, परन्तु कदाचित् किसी पशुका आत्मा भी यदि सम्यक्त्व सहित हो तो उसका ज्ञान हेय-उपादेय तत्वोंका ज्ञाता होजाता है, तब फिर जो सम्यक्त्व सहित मनुष्य हो उसकी महिमाकी तो बात ही क्या की जाय १
- ऐसा महिमावंत सम्यग्दर्शन आत्माका स्वभाव है ।
X
Xx
x
x
परम पुरुषपद वह मोक्ष है। ऐसे परम पुरुषपदकी प्राप्तिके उपाय में जिसका आत्मा विचर रहा है वही वास्तवमें पुरुष है । सम्यग्दृष्टि- पशु का आत्मा परम पुरुषपदरूप मोक्षके मार्ग में स्थित होनेसे वह पुरुष है । और मिथ्यादृष्टि - मानवका आत्मा परम- पुरुषपदके मार्ग में स्थित न होनेसे वह पुरुष नहीं किन्तु पशु है ।
- समात -