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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२५७ अन्य कोई श्रेयरूप नहीं है और मिथ्यादर्शनके समान अन्य कोई अहितरूप नहीं है।
[रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३४ ] सर्व गुणोंकी शोभा सम्यग्दर्शन से है जिसप्रकार नगरकी शोभा दरवाजोंसे है, मुखकी शोभा ऑखोंसे है, और वृक्षकी स्थिरता मूलसे है उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यकी शोभा सम्यग्दर्शनसे है। [भगवती आराधना पृष्ठ ७४०]
शांत भाव, ज्ञान, चारित्र और तप-यह सब यदि सम्यग्दर्शन रहित हों तो पुरुषको पत्थरकी भांति बोझ समान है, परन्तु यदि उनके साथ सम्यग्दर्शन हो तो वे महामणि समान पूज्य हैं।
[आत्मानुशासन १५] लक्ष चौरासी योनिमा भमियो काल अनंत; पण समकित तें नव लयु, ए जाणो निर्धांत ।
योगसार २५ ] यह जीव अनादिकालसे चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है, लेकिन वह कभी सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं हुआ, इसप्रकार हे जीव ! तू निःसंदेह जान!
चार गति दुःखथी डरे, तो तज सौ परभाव; शुद्धातम चिंतन करी, ले शिवसुखनो लाभ ।
[योगसार ५] हे जीव ! यदि तू चार गतिके भ्रमणसे डरता हो तो परभावोंका त्याग कर 1 और निर्मल आत्माका ध्यान कर | जिससे तुमे शिवसुख की प्राप्ति हो।
निजरूप जो नथी जाणतो, करे पुण्य बस पुण्य भमे तो य संसारमा शिवसुख कदी न थाय ।
[ योगसार १५]