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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला
२३३ छोटा बड़ा कहा जाता है। यदि कालद्रव्यकी अपेक्षा न रहे तो यह नही कहा जा सकता कि यह छोटा है, यह बड़ा है, यह बालक है, यह युवान है, यह वृद्ध है। जो नई पुरानी अवस्थायें बदलती रहती है उनसे काल द्रव्यका अस्तित्व निश्चित होता है।
कभी तो जीव और शरीर स्थिर होते हैं और कभी गमन करते है वे स्थिर होने और गमन करनेकी दशामें दोनों समय आकाशमें ही होते हैं, इसलिये आकाशको लेकर उनका गमन अथवा स्थिर रहना निश्चित नही हो सकता। गमनरूप दशा और स्थिर रहनेकी दशा इन दोनोंको भिन्न भिन्न जाननेके लिये उन दोनों अवस्थाओंमें भिन्न भिन्न निमित्तरूप दो द्रव्योंको जानना होगा। धर्म द्रव्यके निमित्तसे जीव-पुद्गलका गमन जाना जा सकता है, और अधर्मके निमित्तसे जीव पुद्गलकी स्थिरता जानी जा सकती है। यदि यह धर्म और अधर्म द्रव्य न हों तो गमन और स्थिरताके भेद नहीं जाने जा सकते ।
धर्म, अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलोंको गति अथवा स्थिति करने में वास्तवमें सहायक नहीं हो। एक द्रव्यके भावको अन्य द्रव्यैकी अपेक्षा के बिना पहचाना नहीं जा सकता। जीवके भावको पहचानने के लिये अजीवकी अपेक्षा होती है। जो जानता है सो जीव है ऐसा कहते ही यह बात स्वतः आजाती है कि जो ज्ञातृत्वसे रहित है वे द्रव्य जीव नहीं हैं, और इसप्रकार अजीवकी अपेक्षा आ जाती है। जीव अमुक स्थान पर है ऐसा कहते ही आकाशकी अपेक्षा आ जाती है। इसीप्रकार छहों द्रव्योंके सम्बन्धमें परस्पर समझ लेना चाहिये। एक आत्म द्रव्यका निर्णय करने पर छहों द्रव्य ज्ञात हो जाते है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह ज्ञानकी विशालता है और ज्ञानका स्वभाव सर्व द्रव्योंको जान लेना है। एक द्रव्यके सिद्ध करने पर छहों द्रव्य सिद्ध हो जाते हैं, इसमें द्रव्यकी पराधीनता नहीं है किन्तु ज्ञानकी महिमा है, जो पदार्थ है वह ज्ञानमें अवश्य ज्ञात होता है, जितना पूर्ण ज्ञानमें ज्ञात होता है उसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी