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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शाखमाला
___ अर्थ-चिद्रूप (ज्ञान स्वरूप ) आत्माका स्मरण करने में न तो क्लेश होता है, न धन खर्च करना पड़ता है, न ही देशांतरमें जाना पड़ता है, न कोई पासमें प्रार्थना करनी पड़ती है, न बलका क्षय होता है, न ही किसी तरफसे भय अथवा पीड़ा होती है, और वह सावद्य भी (पापका कार्य ) नही है, उससे रोग अथवा जन्म मरणमें पड़ना नहीं पड़ता, किसीकी सेवा नहीं करनी पड़ती, ऐसी विना किसी कठिनाईके ज्ञान स्वरूप आत्माके स्मरणका बहुत फल है तब फिर समझदार पुरुष उसे क्यों नहीं ग्रहण करते?
और फिर जो तत्त्व निर्णयके सन्मुख नहीं हुये हैं, उन्हें जागृत करनेके लिये उलाहना दिया है कि
साहीणे गुरु जोगे जेण सुणतीह धम्मवयणाई। ते घिदुट्ठ चिचा अह सुहडा भवभय विहुणा ।।
अर्थ-गुस्का योग स्वाधीन होने पर भी धर्म वचनोंको नही सुनते वे धृष्ट और दुष्ट चित्तवाले हैं अथवा वे भवभय रहित (जिस संसार भयसे तीर्थंकरादि डरे उससे भी नहीं डरनेवाले उल्टे) सुभट है।
जो शास्त्राभ्यासके द्वारा तत्व निर्णय नहीं करते और विषय कषायके कार्यों में ही मग्न रहते है वे अशुभोपयोगी मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो सम्यग्दर्शनके विना पूजा, दान, तप, शील, संयमादि व्यवहार धर्ममें (शुभभावमें ) मग्न हैं वे शुभोपयोगी मिथ्यादृष्टि है। इसलिये भाग्योदय से जिनो मनुष्य पर्याय पाई है उनको तो सर्व धर्मका मूल कारण सम्यग्दर्शन और उसका कारण तत्त्व-निर्णय तथा उसका भी जो मूल कारण शास्त्राभ्यास है वह अवश्य करना चाहिये।
किंतु जो ऐते अवसरको व्यर्थ गवाते है उन पर बुद्धिमान करुणा करके कहते है कि:-.
प्रज्ञ व दुर्लभा सुष्टु दुर्लभा सान्यजन्मने । तां प्राप्त ये प्रमाद्यति ते शोच्याः खलु धीमताम् ।।
(आत्मानुशासन गाथा-४)