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- सम्यग्दर्शन प्रबलसे प्रबल मोहको धारण करे तो भी अर्ध पुद्गल परावर्तनके अन्दर मुझे उसे मोक्ष पहुंचा देना चाहिये, ऐसी मेरी प्रतिज्ञा है "
६. अविरत सम्यग्दृष्टिका परिणमा
अविरत सम्यग्दृष्टि के भी अज्ञानमय राग-द्वेष-मोह नहीं होते। मिथ्यात्व सहित रागादिक हों वही अज्ञान के पक्ष में गिने जाते हैं। सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञान के पक्ष में नहीं हैं।
सम्यग्दृष्टि के निरन्तर ज्ञानमय ही परिणमन होता है। उसे चारित्र की अशक्ति से जो रागादि होते हैं उनका स्वामित्व उसे नहीं है। रागादिक को रोग समान जानकर वह वर्तता है और अपनी शक्ति अनुसार उन्हें काटता जाता है। इसलिये ज्ञानी को जो रागादिक होो हैं वे विद्यमान होने पर भी अविद्यमान जैसे हैं, वह आगामी सामान्य संसारका बंध नहीं करता, मात्र अल्पस्थिति-अनुभागवाला बंध करता है। ऐसी अल्पवंधको गौण करके बन्ध नहीं गिना जाता।
(समयसार-श्रानव अधिकार) ७. अात्महिताभिलाषीका प्रथम कर्तव्य
तत्वनिर्णय तत्व निर्णयरूप धर्म तो, बालक, वृद्ध, रोगी, निरोगी, धनवाI, निर्धन सुक्षेत्री तथा कुक्षेत्री श्रादि सभी अवस्थामें प्राप्त होते योग्य है, इसलिये जो पुरुष अपना हित चाहता है उसे सबसे पहले यह तत्व निर्णयरूप कार्य ही करना योग्य है । कहा है किः
न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशांतरे प्रार्थना । केषांचिन्न बलक्षयो न तु भयं पीड़ा न कस्माश्च न । सावयं न न रोग जन्म पतनं नैवान्य सेवा न हि । चिद्रूपं स्मरणे फलं बहुतरं किन्नाद्रियंते बुधाः ॥