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-* सम्यग्दर्शन -अगृहीत मिथ्यात्व(१) यह शरीर जड़ है, यह अपना नहीं है, यह जानने-देखने का कोई कार्य नहीं करता; तथापि इसे अपना मानना और यह मानना कि यदि यह अनुकूल हो तो ज्ञान हो, सो मिथ्यात्व है।
(२) शरीरको अपना माननेका अर्थ है वर्तमानमें शरीरका जो देहरूप जन्म हुआ है वहांसे मरण होने तक ही अपने आत्माका अस्तित्व मानना, अर्थात् शरीरका संयोग होने पर आत्माकी उत्पत्ति और शरीरका वियोग होने पर आत्माका नाश मानना । यही घोर-मिथ्यात्व है।
(३) शरीरको अपना मानने से जो बाह्य वस्तु शरीरको अनुकूल लगती है उस वस्तुको लाभकारक मानता है, और अपने लिये अनुकूल मानी गई वस्तुका संयोग पुण्यके निमित्तसे होता है इसलिये पुण्यसे लाभ होना मानता है। यही मिथ्यात्व है। जो पुण्यसे लाभ मानता है उसकी दृष्टि देह पर है, आत्मा पर नहीं। र
-गृहीत मिथ्यात्वउपरोक्त तीनों प्रकार अगृहीत मिथ्यात्वके हैं। यह अगृहीत मिथ्यात्व मूल निगोदसे ही अनादि कालसे जीवके साथ चला आ रहा है। एकेन्द्रियसे असैनी पंचेन्द्रिय तक तो जीवके हिताहितका विचार करने की शक्ति ही नहीं होती। संज्ञी दशामें मंद कपायसे ज्ञानके विकासमे हिनाहित का कुछ विचार करने की शक्ति प्राप्त करता है। वहाँ भी आत्माके हिनअहितका सच्चा विवेक करने की जगह अनादि कालसे विपरीत मान्यता का भाव ही चालू रख कर अन्य अनेक प्रकार की नवीन विपरीत मान्यताओंको ग्रहण करता है। अपनी विचार शक्तिके दुरूपयोग तीर विष
रीत मान्यता वाले नीवोंकी संगतिमें आकर अनेक प्रकार की नई २ विपरीत मान्यताओंको ग्रहण करता है। इसप्रकार विचार शक्ति शिाम होने पर जो नवीन विपरीत मान्यता ग्रहण की जाती है उम गृहीन रिभ्या