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भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला
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(३५) सम्यग्दर्शनकी रीति
यह प्रवचनसारकी ८० वीं गाथा चल रही है । आत्मामें अनादिकालसे जो मिथ्यात्व भाव है अधर्म है, उस मिथ्यात्व भावको दूर करके सम्यग्दर्शन कैसे प्रगट हो उसके उपायका इस गाथामें वर्णन किया है । इस आत्माका स्वभाव अरिहंत भगवान जैसा ही - पुण्य-पाप रहित है । आत्माके स्वभावसे च्युत होकर जो पुण्य-पाप होते है उन्हें अपना स्वरूप मानना वह मिध्यात्व है। शरीर, मन, वाणी आत्माके आधीन हैं और उनकी क्रिया आत्मा कर सकता है—ऐसा मानना वह मिथ्यात्व है, तथा आत्मा, शरीर-मन-वाणी के आधीन है और उनकी क्रिया से आत्मा को धर्म होता है-ऐसा मानना भी मिथ्यात्व है-भ्रम है और अनंत संसार में परिभ्रमणका कारण है । उस मिध्यात्वका नाश किये विना धर्म नही होता । उस मिथ्यात्वको नष्ट करनेका उपाय यहाँ बतलाते हैं ।
( २ ) जो जीव भगवान अरिहन्तके आत्माको द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से बरावर जानता है वह जीव वास्तवमें अपने आत्माको जानता है और उसका मिध्यात्वरूप भ्रम अवश्य ही नाशको प्राप्त होता है तथा शुद्ध सम्यक्त्व प्रगट होता है - यह धर्मका उपाय है। अरिहन्तके आत्मा नित्य एकरूप रहनेवाला स्वभाव कैसा है, उसे जो जानता है वह जीव अरिहन्त जैसे अपने आत्मा के द्रव्य-गुण पर्यायको पहिचान कर, पश्चात् अभेद आत्माकी अन्तर्दृष्टि करके मिध्यात्वको दूर करता है और सम्यग्दर्शन प्रगट करता है—यह ८० वीं गाथाका - संक्षिप्त सार है ।
( ३ ) आज मांगलिक प्रसंग है और गाथा भी अलौकिक आई है । यह गाथा ८० वीं है, ५० वीं अर्थात् आठ और शून्य । आठ कर्मोंका अभाव करके सिद्ध दशा कैसे हो - उसकी इसमें बात है ।
( ४ ) अरिहन्त भगवानका आत्मा भी पहले अज्ञानदशामें था और संसार में परिभ्रमण करता था, फिर आत्माका भान करके मोहका तय किया और अरिहन्त दशा प्रगट हुई । पहले अज्ञान दशामें भी वही
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