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१६.
-* सम्यग्दर्शन भूल्यो अभिमानमें न पाँव धरै धरनीमें हिरदेमें करनी विचारे उत्पातकी । फिरै डावाँडोल सो करमके कलोलनिमें ह रही अवस्थाज्यू वभूल्या कैसे पातकी । जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी ऐसो ब्रह्मघाती है मिथ्याती महा पातकी ॥
(नाटक-समयसार) अर्थ:-जो स्वयं किंचित् मात्र धर्मको नहीं जानता और धर्म स्वरूपका भ्रमरूप व्याख्यान (वर्णन ) करता है धर्मके नाम पर हरएक प्रसंग पर पक्षपातसे लड़ाई किया करता है और जो अभिमानमें मस्त होकर भान भूला है और धरती पर पैर नहीं रखता अर्थात् अपनेको महान समझता है, जो प्रति समय अपने हृदयमें उत्पातकी करणीका ही विचार करता है, तूफानमें पड़े हुये पत्तेकी भाँति जिसकी अवस्था शुभाशुभ कर्मोकी तरंगोंमें डावॉडोल हो रही है, कुटिल पापकी अग्निसे जिसका अंतर तप्त हो रहा है-ऐसा महा दुष्ट, कुटिल, अपने आत्म स्वरूपका घात करने वाला मिथ्यादृष्टि महापातकी है।
[कविवर बनारसीदासजी ] ००००००००००००००००००००००००
-:परम रत्न :शंकादि दोषोंसे रहित ऐसा सम्यग्दर्शन वह परम रत्न है। और वह परमरत्न संसार-दुःखरूपी दरिद्रताका अवश्य नाश करता है।
[सार समुच्चय ४०] 60००००००००००००००००००००००
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OTEL.01010