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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला प्रतीति होनेसे ज्ञानीके रागद्वेषका स्वामित्व नहीं रहता और ज्ञातृत्वका अपूर्व निराकुल संतोप हो जाता है। केवलज्ञान होने पर भी अरिहन्त भगवानके प्रदेशत्व गुणकी और ऊर्ध्वगमन स्वभावकी निर्मलता नहीं है इसीलिये वे संसारमें है । अघातिया कर्मोंकी सत्ताके कारण अरिहन्त भगवानके संसार हो सो बात नहीं है, किन्तु अन्यत्व नामक भेद होनेके कारण अभी प्रदेशत्व आदि गुणका विकार है इसीलिये वे संसारमें है।
जैसे-सम्यग्दर्शनके होने पर चारित्र नहीं हुआ तो वहाँ अपने चारित्र गुणकी पर्यायमें दोष है, श्रद्धामें दोष नहीं। चारित्र संबन्धी दोष अपने पुरुपार्थकी कमजोरीके कारण है, कर्मके कारण वह दोष नहीं है, इसीप्रकार केवलज्ञानके होनेपर भी प्रदेशत्व सत्ता और जोग सत्तामें जो विकार रहता है उसका कारण यह है कि समस्त गुणों में अन्यत्व नामक भेद है। प्रत्येक पर्यायकी सत्ता स्वतत्र है। यह गाथा द्रव्य गुण पर्यायकी स्वतंत्र सत्ताको जैसाका तैसा बतलाती है। क्योंकि यह ज्ञय अधिकार है इसलिये प्रत्येक पदार्थ और गुणकी सत्ताकी स्वतंत्रताकी प्रतीति करता है। यदि प्रत्येक गुणसत्ता और पर्याय सत्ताके अस्तित्वको ज्यों का त्यों जाने तो ज्ञान सच्चा है। निर्विकारी पर्याय अथवा विकारी पर्याय भी स्वतंत्र पर्याय सत्ता है। उसे ज्यों की त्यों जानना चाहिये। नोव जो विकार भी पर्यायमें स्वतत्र रूपसे करता है उसमें भी अपनी पर्यायका दोष कारण है। प्रत्येक द्रव्य गुण पर्यायकी सत्ता स्वतंत्र है तब फिर कर्मकी सत्ता आत्माकी सत्तामें क्या कर सकती है ? कर्म और आत्माकी सत्तामें तो प्रदेश भेद स्पष्ट है दो वस्तुओंमें सर्वथा पृथक्त्व भेद है।
यहाँ यह बताया गया है कि एक गुणके साथ दूसरे गुणका पृथक्व भेद न होनेपर भी उनमें अन्यत्व भेद है, इसलिये एक गुणकी सत्तामें दूसरे गुणकी सत्ता नहीं है। इसप्रकार यह गाथा स्वमें ही अभेदत्व और भेदत्व बदलाती है। प्रदेश भेद न होनेसे अभेद है और गुण-गुणीकी अपेक्षासे भेद है कोई भी दो वस्तये लीजिये उन दोनों में प्रदेशत्वभेद है,