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-* सम्यग्दर्शन असत्य बताये तो वह असत्यको स्वीकार नहीं कर लेता। जिसे सत्स्वभाव चाहिये हो वह स्वभावसे विरुद्ध भावको स्वीकार नहीं करता-उसे अपना नहीं मानता । वस्तुका स्वरूप शुद्ध है, उसका बराबर निर्णय किया और वृत्तिके छूट जाने पर जो अभेद शुद्ध अनुभव हुआ वही समयसार है और वही धर्म है । ऐसा धर्म कैसे हो धर्म करनेके लिये पहले क्या करना चाहिये ? इसके सम्बन्धमें यह कथन चल रहा है। धर्मकी रुचिवाले जीव कैसे होते हैं ?
धर्मके लिये सर्व प्रथम श्रुतज्ञानका अवलम्बन लेकर श्रवण-मनन से ज्ञान स्वभावी आत्माका निश्चय करना कि मैं एक ज्ञान स्वभाव हूँ। ज्ञानमें ज्ञानके अतिरिक्त कुछ भी करने धरनेका स्वभाव नहीं है। इसप्रकार सत्को समझने में नो समय जाता है वह भी अनन्तकालमें कभी नहीं किया गया अपूर्व अभ्यास है। जीवकी सत्की ओर रुचि होती है अर्थात् वैराग्य जागृत होता है और समस्त संसारके ओरकी रुचि उड़ जाती है। चौरासीके अवतारका त्रास अनुभव होने लगता है कि यह त्रास कैसा ? स्वरूपकी प्रतीति नहीं होती और प्रतिक्षण पराश्रय भावमें लगा रहना पड़ता है, यह भी कोई मनुष्यका जीवन है। तिर्यंच इत्यादिके दुःखोंकी तो बात ही क्या, परन्तु इस मानवका भी ऐसा दुःखी जीवन। और यह अन्तमें स्वरूपकी प्रतीतिके बिना असाध्य होकर- मरता है ? इसप्रकार संसार के त्रासका अनुभव होने पर स्वरूपको समझनेकी रुचि होती है। वस्तुको समझनेके लिये जो समय जाता है वह भी ज्ञानकी क्रिया है सत्का मार्ग है। .
जिज्ञासुओंको पहले ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय करना चाहिये। मैं एक ज्ञाता हूँ, मेरा स्वरूप ज्ञान है, वह जानने वाला है, पुण्य पाप कोई मेरे ज्ञानका स्वरूप नहीं है। पुण्य पापके भाव अथवा स्वर्ग नरकादि कोई मेरा स्वभाव नहीं है। इसप्रकार अतज्ञानके द्वारा आत्माका प्रथम निर्णय करना ही प्रथम उपाय है।