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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्रमाला धर्मात्माओं को देखकर हर्ष होता है, उल्लास होता है। और इस प्रकार धर्म के प्रति आदरभाव होने से वह अपने धर्म की वृद्धि करके पूर्ण धर्म प्रगट करके सिद्ध हो जायगा।
[ता० १२-४-४५ का व्याख्यान ] (२३) सत् की प्राप्तिके लिए अर्पणता।
आत्मा प्रिय हुआ कब कहा जाता है, अर्थात् यह कब कहा जाता है कि आत्माकी कीमत या प्रतिष्ठा हुई ? पहली बात तो यह है कि जो वीतराग, सर्वज्ञ, परमात्मा हो गये हैं ऐसे अरिहन्तदेवके प्रति सच्ची प्रीति होनी चाहिये। किन्तु विषय कषाय या कुदेवादिके प्रति जो तीन राग है उसे दूर करके सच्चे देव गुरुके प्रति भक्ति प्रदर्शित करनेके लिए भी जो जीव मन्द राग नहीं कर सकते वे जीव बिल्कुल राग रहित आत्म स्वरूपकी श्रद्धा कहॉसे पा सकेंगे ?
जिसमें परम उपकारी वीतरागी देव गुरू धर्मके लिए भी राग कम करनेकी भावना नहीं है वह अपने आत्माके लिए रागका बिल्कुल अभाव कैसे कर सकेगा ? जिसमें दो पाई देनेकी शक्ति नहीं है वह दो लाख रुपया क्यों कर दे सकेगा ? उसीप्रकार जिसे देव-गुरुकी सच्ची प्रीति नहीं हैव्यवहारमें भी अभी जो राग कम नही कर सकता वह निश्चयमें यह कैसे और कहाँसे ला सकेगा कि 'राग मेरा स्वरूप नहीं है।'
जिसे देव-गुरु की सच्ची श्रद्धा-भक्ति नहीं है उसे तो निश्चय या व्यवहार में से कोई भी सच्चा नहीं है, मात्र अकेले मूढ भाव की पुष्टि होती है- वह केवल तीव्र कषाय और शुष्कज्ञान को ही पुष्ट कहता है।
प्राथमिक दशा में देवगुरु धर्मकी भक्ति का शुभ राग जागृत होता. है-और उसीके आवेश में भक्त सोचता है कि देवगुरु धर्म के लिये तृष्णा कम करके अर्पित होजाऊं, उनके लिये अपने शरीर की चमड़ी उतरवाकर यदि जूते बनवा दूं तो भी उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता। इस तरह की सर्वस्व समर्पण की भावना अपने मन में आये बिना देवगुरु धर्म