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~* सम्यग्दर्शन का भान होनेके बाद भी वह स्वयं वीतराग नहीं होता इसलिये स्वयं स्वधर्म की पूर्णताकी भावनाका विकल्प उठता है, और विकल्प पर निमित्तकी अपेक्षा रखता है, इसलिये अपने धर्मकी प्रभावनाका विकल्प उठने पर वह जहाँ जहाँ धर्मी जीवोंको देखता है वहाँ वहाँ उसे रुचि, प्रमोद और उत्साह उत्पन्न होता है । वास्तवमें तो उसे अपने अन्तरंग धर्मको पूर्णताकी रुचि है। धर्मनायक देवाधिदेव तीर्थकर और मुनिधर्मात्मा, सद्गुरु, सत्शास्त्र, सम्यग्दृष्टी एवं सम्यग्ज्ञानी, यह सब धर्मात्मा धर्मके स्थान है। उनके प्रति धर्मात्माको आदर-प्रमोदभाव उमड़े बिना नहीं रहता। जिसे धर्मात्माओंके प्रति अरुचि है, उसे अपने धर्मके ही प्रति अरुचि है, अपने आत्मा पर क्रोध है।
जिसका उपयोग धर्मी जीवोंको हीन बताकर अपकी बड़ाई लेनेके लिये होता है जो धर्मीका विरोध करके स्वयं बड़ा बनना चाहता है वह निजात्म कल्याणका शत्रु है-मिथ्यादृष्टि है। धर्म यानी स्वभाव, और उसे धारण करनेवाला धर्मी यानी श्रात्मा । इसलिये जिसे धर्मात्माके प्रति अरुचि है उसे धर्मके प्रति अरुचि है। जिसे धर्मकी अरुचि हुई उसे आत्माकी अरुचि हुई। और आत्माकी अरुचि पूर्वक जो क्रोध, मान, माया, लोभ होता है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुवंधी माया और अनन्तानुबन्धी लोभ होता है। इसलिये जो धर्मात्मा का अनादर करता है वह अनन्तानुबन्धी रागद्वेष वाला है, और उसका फल अनन्त संसार है। ' - जिसे धर्मरुचि है उसे परिपूर्ण स्वभावकी रुचि है। उसे अन्य धर्मात्माओं के प्रति उपेक्षा अनादर या ईर्ष्या नहीं हो सकती। यदि अपने से पहले कोई दूसरा केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध हो जाय तो उसे खेद नहीं होगा, किन्तु अन्तरसे प्रमोद जागृत होगा कि ओहो ! धन्य है इस धर्मास्माको ! जो मुझे इष्ट है वह इसने प्रगट किया है। मुझे इसीकी रुचि है।
आदर है, भाव है, चाह है। इस प्रकार अन्य जीवों की धर्मवृद्धि देखकर धर्मान्मा अपने धर्मकी पूर्णता की भावना भाता है इसलिये उसे अन्य