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भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला त्रिकालके अनन्त तीर्थकर केवली भगवान, संत-मुनि और सम्यग्ज्ञानी जीवोंको इन सबको उसने एक क्षणभरमें झूठा माना है। इसप्रकार मिथ्यात्वके एक समयके विपरीत वीर्यमें अनन्त सत्के निषेधका महापाप है।
और फिर मिथ्यादृष्टि जीवके अभिप्रायमें यह भी होता है किजैसे मैं (जीव) परका कर्ता हूँ और पुण्य पापका कर्ता हूँ उसीप्रकार जगतके सभी जीव सदाकाल पर वस्तुके और पुण्य पापरूप विकारके कर्ता हैं। इसप्रकार विपरीत मान्यतासे उसने जगतके सभी जीवोंको परका कर्ता और विकारका स्वामी बना डाला; अर्थात् उसने अपनी विपरीत मान्यता के द्वारा सभी जीवोंके शुद्ध अविकार स्वरूप की हत्या कर डाली। यह महा विपरीत दृष्टिका सबसे बड़ा पाप है। त्रैकालिक सन्का एक क्षण भरके लिये भी अनादर होना सो ही बहुत बड़ा पाप है।
मिथ्यात्वी जीव मानता है कि एक जीव दूसरे जीवका कुछ कर सकता है अर्थात् दूसरे जीव मेरा कार्य कर सकते है और मैं दूसरे जीवों का कार्य कर सकता हूँ। इस मान्यताका अर्थ यह हुआ कि जगत्के सभी जीव परमुखापेक्षी है और पराधीन हैं। इसप्रकार उसने अपनी विपरीत मान्यतासे जगत्के सभी जीवोंके स्वाधीन स्वभावकी हिंसा की है, इसलिये मिथ्या मान्यता ही महान हिसक भाव है और यही सबसे बड़ा पाप है।
श्री परमात्म प्रकाशमें कहा है कि-सम्यक्त्व सहित नरकवास भी अच्छा है और मिथ्यात्व सहित स्वर्गवास भी बुरा है। इससे निश्चय हुआ है कि जिस भावसे नरक मिलता है उस अशुभ भावसे भी मिथ्यात्वका पाप बहुत बड़ा है, यह समझकर जीवोंको सर्व प्रथम यथार्थ समझ के द्वारा मिथ्यात्वके महापाप को दूर करनेका उपाय करना चाहिये। इस जगतमें जीवको मिथ्यात्व समान अहित कर्ता दूसरा कोई नहीं है और सम्यक्त्व समान उपकार करनेवाला दूसरा कोई नहीं है।