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अर्ज करूं जिनराज आपसे । तुम रक्षा के करनेवाले ॥ सेवे सुरिंदा तेज दिणंदा । दीपे जिणंदा प्रतिपाले | अक्षय पुण्य कमाया दमकती काया । कंचन वरणंदेह धरणं ॥ जय ॥३॥ रवि चन्द्रमा सभी जोतषी | भरा रहे समुद्र पानी | भूमण्डलअचल जिममेरु तवलगरहो यह जिनवाणी ॥ सदा रहोगुलजार गिरामी । भवश्वातकके हरणं । जय४ सदा देव गुरु धर्म आपकी । बनी रहो यह गुल क्यारी ॥ श्री रत्नचन्दजी महाराज राजके । जवाहरलालजी - यशधारी ॥ संवत उन्नीसो पैंसठ वर्षे । हीरालाल कहे तारणतिरणं ॥ जय ॥ ५ ॥
॥ स्तवन श्रीवीर प्रभूके दर्शनका उत्साह || || हरी आजो मंदरिये रंग मानवाने || यह देशी || आलो आलोरे दर्शन वाहला वीरनोरे || आं० ॥