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( १८१) गुरु जन त्रिया संग गुढ अतिचार है । हीरालाल कहे एसे रूधिर प्रणाम सेती। आगेही करम घाती होवा जेजेकार हैं ॥ ४ ॥ त्रिवडा ते लज्जा रस संकासे ऊपत भयो। रखे कोइ जाण लियो मम काज करियो । प्रथम संजोग समे रूधिरकों वस्त्र होत । त्रिया भाव केरे काज आगे लेइ धरियो । तथा लज्जा आण वहे पोताकी सैयाको कहे । लोकिक की लाज लहै अकाजपर हरियो । हीरालाल कहे रस पाचमाको अर्थ लहे । मुनी लाजे पापसेती भवदधि तरियो ॥ ५ ॥ विभत्सको रस दूर्गंधसे दुगंछा करे। तीहसे प्रगट भयो वेराग रस भाव है ॥ अशुची अशुध पुदगलको भरियो तन । श्रोतादिक द्वार सब अशुचीकी आव है ।