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धन माल लेइ कर चोर चाल्या निज घर । कहे हीरालाल सोतो गया घणी दूरे ॥ जाणुं २ करस्यो चोर माल लेइ गयो । एसो जाण पनो पायो तामे पंडे घूररे ॥ ८ ॥ मैं तो घनो ऊपदेश दियों घनी करी रेश। थने तो न लागे थारा करमाकी गत है || धर्मकी जाण प्रीत जगकी बताइ रीत | मैंतो सब बात कही सांची २ सत है || थारे तो न आस आई मनमेंभी नहीं भाइ । हीरालाल दोष नाहीं थारी याही मत्त है ॥
जैसा पुण्य थारा होसी तैसा आगे आडा आसी ।
म्हारी गत मैंहीं जाणु थारी याही गत्त है ॥ ९ ॥
मानव जनम वृक्ष काल रूप जाण हाती ।
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रातदिन रूप मुसा आयु जड काटते है || संसार समान कूप रागद्वेष- अजगर ।