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(१७१) अहोनिश सरण लेत चौरासी घटाई है ।। ऐसा है दयाल दाता करि है अनंत साता। हीरालाल कहे ज्ञाता गुरू गुण गाई है ॥४॥ देखो इस जगत्को झुठकी रचीहे लाल । सांबसे न चाले चाल जगत संसारी है ॥ कूडा जो कलंक देत निंदकहै लाज रहित । दुष्टसेती करे हेत नर्क अधिकारी है । सांचके न आवे ऑव झूट काहा रहे राच । रतन सरिखो काँच करत उजारी है ॥ मुगुण सुजाण नर तुरतहि छाण करे हीरालाल कहै सतगुरु गुण धारी है ॥ ५॥
।। इति संपूर्णम् ॥