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जैन पूजा पाठ सप्रह
चौपाई १६ मात्रा जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करम-बन्ध कट जावै । तासौं शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्यावे ॥२॥ ताको चहुँगतिके दुख नाहीं, सो न पर भव-सागर माहीं। जनम-जरा-मृत दोप मिटावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्याचें ॥३॥ सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक रतन-त्रय ध्यावे ॥४॥ सोई शक्र-चक्रिपद लेई, तीन लोकके सुख विलसेई । सो रागादिक भाव वहावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्याचे ॥शा सोई लोकालोक निहारै, परमानन्द दशा विस्तारै । आप तिरै औरन तिरवावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्यावै ॥६॥ एक स्वरूप-प्रकाश निज, वचन कयो नहिं जाय । तीन भेद व्योहार सब, 'द्यानत' को सुखदाय ॥७॥ ॐ ह्रीं सम्यकनत्राय महाघ निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म निर्मलता केवल शास्त्र का अध्ययन ससार बन्धन से मुक्त होने का मार्ग नहीं। तोता राम - राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है। इसी तरह बहुत से शास्त्रों का बोध होने पर भी जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता।
-'वर्णी वाणी' से