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________________ ૪૨ न्न पूजा पाठ प्रह सम्यक रत्न- त्रयनिधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शतइन्द्रनिकरि वंदित सोहैं, सुरनर पशु सबके मन मोहें ॥ ७ ॥ दोहा - तुमको पूर्जे वंदना, करै धन्य नर सोच । 'द्यानत' सरधा सन धरै सो भी धरमी होय || ॐ ह्रीं विद्यमानविग्रतितीचं को नहापं निर्वणनीति स्वाहा । विद्यमान बीस तीर्थंकरोंका अर्ध उदकचंदनतंदुलपुप्पर्क - श्चस्सुदीपसुधूपफलार्घकैः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥ - ॐ ही श्रीसीम घर-चुग्नघरबाहु सुबाहु जत स्वयंन माननीय सूत्रम विद्यालकीर्ति-वज्रघर-चन्द्रानन चद्रबाहुभुज्न घर-नेनित्रम-वीरपेण महानद्र- देवरगोऽचितचीति विगतिविद्यमानतीर्थवरेभ्योऽर्थं निर्वपानीति स्वाहा । अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्ध कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान् । वंदे भावन-व्यंतरान् युतिवरान् स्वर्गामरावालगान् । सद्गन्धाक्षत - पुष्प - दाम - चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैद्रव्येनीरसुखैर्यजामि सततं दुष्कर्मणांशांतये ॥ १ ॥ सवैया सात किरोड़ बहत्तर लाख पताल विषै जिन मन्दिर जानो । मध्यहि लोक में चारसो ठावन, व्यंतर ज्योतिष के अधिधानो ||
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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