________________
४३.
जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-स्वामिनी ! तुम परसाद तें मैं पायो फल सार ।
व्रत सुगन्ध दशमी कियो, पूरब विद्या धार ।। १३३॥ ता व्रत के परभावते, देव भयो मैं जाय । तुम मेरी साधर्मिणी, जुग क्रम देखनि आय ।। १३४॥ इमि कहि वस्राभरण तें, पूज करी मनलाय ।
अरु सुर पुनि ऐसे कहो, तुम मेरी वर माय ॥१३॥ चौपाई-थुतिकर सुर निजथानिक गयो,लोकाइह निश्चय लखि लियो।
धन्य सुगन्थ दशमी व्रत सार, ताको फल है अनन्त अपार ।। तव सवही जन यह व्रत धस्यो, अपनू कर्म महाफल हरयो। तिलकमती कञ्चन प्रभु राय, मुनिक नमि अपने घरि जाय । देती पात्रनि को शुभ दान, करती सज्जन जन सन्मान । नित प्रति पूजै श्री जिनराय, अरु उपवास करै मनलाय ॥ पति व्रत गुण की पालनहार, पुनि सुगन्ध दशमी व्रत धार । अन्त समाधि थकी तजि प्रान, जाय लयो ईशान सु थान ।। सागर दोय जहां थिति लई, शुभ नै भयो सुरोत्तम सही। नारी लिङ्ग निन्ध छेदियो, चय शिववासी जिनवर्णयो। जहां देव सेवा बहु करे, निरमल चमर तहां शिर ढर। और विभव अधिकौ जिहिं जान, पूरव पुन्य भये तिहि आन ॥ इह लखि सुगन्ध दशैं व्रत सार, कीजै हो! भवि शर्म विचार।
जे भवि नर-नारी व्रत करें, ते संसार समुद्र सों तिरै ॥ दोहा-श्रुतसागर ब्रह्मचारी को, ले पूरव अनुसार ।
भाषा सार बनाय के, सुखित 'खुशाल' अपार ॥१४३॥