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जैन पूजा पाठ सप्रह सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी। सो सलाघना लहै मिटै जगलों जगफेरी ।। तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकन्त उचरिये। तही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ॥२०॥ वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति सांई। तातै थुति आलाप नाहिं पहुँचे तुम लाई । तो भी निष्फल नाहिं भक्तिरल भीने नायक । सन्तनको सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥२१॥ कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहू नहिं धारों। अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो॥ तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये। यह प्रभुता जग तिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये ॥२२॥ सुरतिय गावे सुरनि सर्वगति ज्ञान स्वरूपी । जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनन्दरूपी॥ ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहिं हो है। श्रुतके सुमरन माहि लोन कबहूँ नर मोहै ॥२३॥ अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चित में धार । आदरसों तिहूंकाल माहिं जग थुति विस्तारै ॥ सो सुकत शिवपंथ भक्ति रचला कर पूरै। पञ्चकल्याणक ऋद्धि पाय लिहचै दुःख चूरै ॥२४॥