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________________ जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विषविकार की हान ॥ तुम भगवंत विमल गुण लीन, समलरूप मानहिं मति हीन । ज्यों पीलिया रोग हग गहै, वर्ण विवर्ण शंखसों कहै ॥ दोहा - निकट रहत उपदेश सुन तरुवर भयो अशोक । ज्यों रवि ऊगत जीव सव, प्रगट होत भुविलोक ॥ सुमनवृष्टि ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहि । त्यों तुम सेवत सुमनजन बन्ध अधोमुख होहिं ॥ उपजी तुम होय उदधितें, वाणी सुधा समान । जिहं पीवत भविजन लहहि, अजर अमरपद थान । कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय । भावसहित जो जिन नमैं, तिहुँगति ऊरध होय ॥ सिंघासन गिरिमेरुसम, प्रभु धुनि गरजत घोर । श्याम सु तनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ॥ छविहत होत अशोक दल, तुम भामण्डल देख ॥। वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ॥ सीख कहै तिहुँ लोक को, ये सुरदुन्दुभिनाद । शिवपथसारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद ॥ तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छविदेत । त्रिविधरूप धर मनहु शशि, सेवत नखत समेत ॥
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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