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अक्षय अक्षय
क्यूँ, सो अक्षय पद नाय ।
महा अक्षय पद तुम लियो, यातं पूजू राय ॥ ॐ ह्री अनयपदप्राप्रये अनतान् निर्वपामीति स्वाहा । विनीत-भव्याब्ज-विबोधसूर्यान्वर्यान् सुचर्या कथनैक-धुर्यान् । कुन्दारविन्द-प्रमुखैः प्रसूनैजिनेन्द्र-सिद्धान्त यतीन् यजेऽहम्||८|| पुष्प चाप धर पुष्प सर, वारी मनमथ वीर ।
न पूजा पाठ सग्रह
यातें पूजा पुष्प की, हरै मदन की पीर ॥
कामवाण पुष्पे हरो, सो तुम जीते राय ।
यातें मैं पायन पडू, मदन काम नशि जाय ॥ ही कामवाणविध्वलनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । कुदर्प- कन्दर्प - विसर्प - सर्प-प्रसह्य-निर्णाशन-चैनतेयान् । प्राज्याज्यसारैश्चरुभी रसात्यैजिनेन्द्र - सिद्धान्त - यतीन् यजेऽहम्॥६॥ परम अन्न नैवेद्य विधि, क्षुधाहरण तन पोप ।
जे पूजैं नेवेद्य सों, मिटे क्षुधादिक दोष ॥
भोजन नाना विधिकियो, मूल क्षुधा नहिं जाय ।
क्षुधा रोग प्रभु तुम हरो, यातें पूजू पाच ॥ ॐ ह्रीं "तुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ध्वस्तोद्यमान्घीकृत- विश्व विश्वमोहान्धकार-प्रतिघात-दीपान् । दीपैः कनकांचन - भाजनस्थैर्जिनेन्द्र- सिद्धान्त यतीन् यजेऽहम् ॥ १० आपा पर देखे 'सकल, निशि मे दीपक जोत ।
दीपक सों जिन पूजिये, निर्मल ज्ञान उद्योत ॥
दीप शिखा घट में वसै, ज्ञान घटा घट माय ।
ढूंढ़त डोलें करम को, कृत कलंक मिट जाय ॥ ॐ ह्रीं मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।