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गपूजा 100४५
तन्दुलसित शशि-सम शुद्ध, लीनों थार भरी। तसुपुञ्जधरों अविरुद्ध, पावों शिव-नगरी ॥ श्रीवीर० ॥ उही श्रीगदापीर जिनेनाप जयपदप्राप्तय अवतान् निर्मपामीति स्वाहा ।। सुरतरुके सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे । सो मनमथ-भजन-हेत, पूजों एद थारे ।। श्रीवीर०॥ ॐi धीमहावीर जिन्दाप कामपाणिभ्यसनाय पुष्प नियंपामीति स्याहा ॥ रस-रज्जत सज्जत सद्य, सज्जत थार भरी। पद जज्जत रज्जत अय, भज्जत सूख-अरी।। श्रीवीर०॥
ही धीमहावीर गिनेमाप पारोगपिनाशनाय नए निर्दपामीति स्वाहा ॥ तम-खण्डित मण्डित-नेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुख-गेह, श्रम-तल खोवत हों ॥श्रीवीर०॥
i श्रीमापीर जिनेन्द्राय मौदान्धकार यिनारानाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।। हरिचन्दन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा। तुस पदतर खेवत भूरि, आठों कर्स जरा ।। श्रीवीर०॥
ही श्रीमहावीर जिनंन्द्राय अप्टफर्म दहनाप धूप निर्वपामोति साहा ॥ ऋतु-फल कल-वजित लाय, कंचन-थार भरों। शिव-फल-हित हेजिनराय, तुढिगभेंट धरों॥श्रीवीर०
*ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्यपामोति स्वाहा ॥ जल-फल वसुसजि हिम-थार, तन-मन-मोदधरों। गुण गाऊँ भव-दधितार, पूजत पाप हरों ॥श्रीवीर०॥ ही धोनहायार गिनेन्द्राय अनन्यपदप्राप्तय मर्म निरपामोति स्वाहा ॥