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________________ 73 आचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्यानुशासन के द्वितीय अध्याय में ध्वनि ( व्यइ. ग्य) के आधार पर काव्य के तीन भेद माने हैं - उत्तम, मध्यम तथा अवर। उनके अनुसार व्यइ. य की प्रधानता होने पर उत्तमकाव्य होता है।' इसे व्याख्यायित करते हुए वे लिखते हैं कि जब वाच्य अर्थ से वस्तु-अलंकार एवं रत रूप व्यंग्य अर्थ की प्रधानता होती है तो वह उत्तम काव्य कहा जाता है। यथा - वाल्मीक: किमुतोद्धतो गिरिरियत्कस्य स्पृशेदाशयं त्रैलोक्यं तपसा जितं यदि मदो दोष्पा किमेतावता। सर्व साध्वथ वा रूपत्ति विरहक्षामस्य रामस्य चेद त्वद्वदन्ताङ्कितवालिकवरूधिरक्लिन्नाग्रपङ्गु शरम्।। यहाँ पर दन्ताङ्कित'इत्यादि पदों से बालि द्वारा पराभव को प्राप्त करके उसकी काँख मे दबाये जाते हुए चार समुदों तक भमप उसका प्रतिकार न कर पाने पर भी इस प्रकार का अभिमान दर्प इत्यादि वस्तु अभिव्यक्त हो रही है। ___ व्यंग्य के असत्प्राधान्य, सन्दिग्धप्राधान्य व तुल्यप्राधान्य होने से उक्त नामों वाला तीन प्रकार का मध्यमकाव्य होता है। - - - - - 1. व्यंग्यस्य प्राधान्ये काव्यमुत्तमम् काव्यानु, 2/57 2. असत्संदिग्धतुल्यप्रधान्ये मध्यम श्रेधा काव्यानु, 2/58
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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