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________________ अपने उपरोक्त कथन को और स्पष्ट करते वे कहते हैं कि नवीननवीन अर्थों को प्रकाशित करने वाले शब्दों की रचना कर देना मात्र ही काव्य नहीं कहलाता है। क्योंकि न्याय तथा व्याकरणादि में भी यह हो सकता है। किंतु चमत्कारजनक, रस से पवित्र शब्द तथा अर्थ का सन्निवेश ही काव्य कहलाने योग्य होता है। जैसे परिपाक हो जाने के कारण सुन्दर दृष्टिगत होने वाला भी आम्रपल रसशून्य होने पर बुरा लगता है । ' आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने मम्मट सम्मत काव्य-स्वरूप में कुछ अपनी दोषरहित, गुण, अलंकार व व्यंजना बात का समावेश करते लिखा है कि सहित काव्य कहलाता है। 2 आगे वे लिखते हैं कि जहां अलंकार की अस्फुट 1. 2. - 54 न हि नवनवार्थव्युत्पन्नशब्दगथनमेव काव्यं तर्क- व्याकरणयोरपि तथा भावप्रसंगात् । किन्तु विचित्र रसपवित्रशब्दार्थ निवेश: । विपाककमनीयमपि यमकश्लेषादीनामेव निबन्धमर्हति । हिन्दी नाट्यदर्पण, विवरण भाग, पृ. 320 निर्दोषः सगुणः सालंकृत: सव्यंजन स्तथा । शब्दश्चार्यश्च वैचित्र्यपात्रतां हि विगाहते ।। अलंकारमहोदधि 1/13
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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