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________________ 46 द्वितीय अध्याय - काव्य स्वरूप, हेतु, प्रयोजन : काव्यत्वरूप संस्कृत काव्य-चिंतकों ने काव्य के सर्वसम्मत निर्दष्ट एवं सार्वभौम लक्षण प्रस्तुत करने का प्रयात प्रारंभ से ही किया है, पर उनके विचारों में इतनी भिन्नता रही है कि इस प्रश्न को लेकर छः संप्रदायों की सृष्टि हुई एवं प्रत्येक ने परस्पर विरोधी मान्यतायें स्थापित की। मानसिक आधार पर अवलम्बित किसी भी वस्तु का लक्षण प्रस्तुत करना अत्यंत दुष्कर है। सामान्यत: वस्तु का स्वरूप तब तक पूर्णत: शुद्ध नहीं माना जाता है, जब तक कि वह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव इन दोषों से रहित न हो। अत : जित स्वरूप में उपर्युक्त दोषों का अभाव होगा वही शुद्ध स्वरूप माना जायेगा। प्राचीनकाल से अद्यावधि काव्य के स्वरूप पर विभिन्न आचार्यों ने विचार किया है। उपलब्ध काव्य-स्वरूपों में भामह-कृत काव्य-स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन है। आचार्य भामह के समय काव्यस्वरूप विषयक अनेक धारपायें थीं। कोई आचार्य केवल शब्द को व कोई आचार्य केवल अर्थ को काव्य की संज्ञा से अभिहित करते थे जैसा कि वक्रोक्तिकार के उल्लेख से स्पष्ट होता है। 1. केषाश्चिन्मतं कविकौशलकल्पितकमनीयतातिशय : शब्द एव केवलं काव्यमिति। केषांचिद् वाच्यमेव रचनावैकियचमत्कारकारि काव्यमिति। वक्रोक्तिजीवित ।/। वृत्ति
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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