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________________ 380 सात अयत्नज अलंकार : शोभा आदि सात अयत्नज अलंकार कहलाते हैं।' शोभा, कीन्त और दीप्ति : 'ल्पयौवनलावण्यैः पुंभागोपबंहितमन्दमध्यतीवाइ.गच्छाया शोमा कान्तिदीप्तिपच अर्थात रूप, यौवन तथा लावण्य का पुरूष द्वारा उपभोग करने से वृद्धि को प्राप्त मन्द, मध्य और तीव्र अंगों की छाया क्रमश: शोभा, कान्ति और दीप्ति नामक स्त्रियों के अयत्नज अलंकार हैं। माधुर्य : "चेष्टामसृपत्वं माधुर्यम्” अर्थात् क्रोधादि में भी चेष्टाओं हाव-भावों की कोमलता माधुर्य है। धैर्य : "अचापला विकत्यनत्वे धैर्यम' अर्थात चंचलता और आत्मप्रशंसा का अभाव धैर्य है। औदार्य : प्रश्रय औदार्यम्' अर्थाद अमर्ष, ईर्ष्या, क्रोध आदि अवस्थाओं में भी प्रश्रय-शिष्टतापूर्ण व्यवहार औदार्य है। प्रागल्भ्य : "प्रयोगे निःसाध्वसत्वं प्रागल्भ्यम्” अर्थात प्रयोग-काम, चौसठ कला आदि के प्रयोग में निःसाध्वसत्व अर्थात भय आदि का न होना प्रागल्भ्य है। ___ आवार्य हेमचन्द्र के प्रतिपादन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन पर भरतमुनि का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है तथा उन्होंने आचार्य धनंजय का अनुकर प किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने विलास नामक स्वाभाविक अलंकार का स्वरूप 1. शोभादयः सप्तायत्नजाः। काव्यानुशासन 7/47, वृत्ति, पृ. 423
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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