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________________ 374 858 वासकसज्जा : " इति नयेन वासके रतिसंभोगलालसतयाङ्गरागदिना सज्जा प्रगुणा वासकसज्जा" अर्थात् प्रिय आगमन को सुनकर रति-संभोग की लालसा से अपने को अंगरागादि के द्वारा सजाने वाली वासकसज्जा कहलाती है। 868 विरोत्कण्ठिता: प्रियंमन्या चिरयति भर्तरि विरहोत्कण्ठिता अर्थात प्रिय के अपराध न करने पर भी मात्र विलम्ब के कारण बेचैन रहती है अथवा चिरकाल तक पति को अन्य में प्रिय मानकर विरह से उत्कण्ठित रहने वाली विरहोत्कण्ठिता कहलाती है। $78 विप्रलब्धा : "दूतीमुखेन स्वयं वा संकेतं कृत्वा केनापि कारपेन वंचिता विप्रलब्धा अर्थात् दूती मुख से अथवा स्वयं संकेत करके किसी कारणवश नायक के मिलन से वंचित रहने वाली विप्रलब्धा कहलाती है। 888 अभिसारिका : "अभिसरत्यभिसारयति वा कामार्ता कान्तमित्यभिसारिका" अर्थात् जो स्वयं अभिसरण करती है या नायक को अपने पास बुलाकर अभिसरण कराती है वह काम से पीड़ित अभिसारिका नायिका कहलाती है। " की प्रकार इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने व्युत्पत्ति द्वारा ही आठों नायिकाओं के अर्थ स्पष्ट कर दिये हैं, अलग से लक्षण नहीं किये हैं। इन्हें ही उनके लक्षण समझना चाहिए। ये आठ अवस्थायें स्वकीया नायिका की हैं।
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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