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________________ 361 धीरललित व धीरप्रशांत चार प्रकार के स्वभाव होते हैं। ये स्वभाव केवल मध्यम तथा उत्तम दो रूपों में ही दर्पन करने चाहिए।। नाट्यदर्पपकार के अनुसार पूर्वोक्त चार नायकों में ते देवता धीरोदत स्वभाव सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त स्वभाव वपिक् तथा ब्राहमप धीरप्रशान्त स्वभाव तथा क्षत्रिय चारों प्रकार के स्वभाव वाले हो सकते हैं।2 आगे वे लिखते हैं कि जो विप्र परशुराम के अतिकूरत्व को सूचित करने के लिये धीरोदतत्व का वर्पन किया गया है वह "कहीं कार्यवश अर्थात् विशेष प्रयोजन से भाषा - प्रकृति और वेषादि विषयक नियमों का उल्लंघन भी किया जा सकता है इस अपवाद के विद्यमान होने से अनुचित नहीं है। देवताओं का यह धीरोद्त स्वभाव का नियम मनुष्यों की दृष्टि से है, अपनी दृष्टि से नहीं। क्योंकि देवताओं में भी शिव आदि धीरोदात्त तथा ब्रहमा आदि धीरशान्त नायक भी दृष्टिगत होते हैं। कारिका में उक्त “राजानः' पद से राजा का ही गृहप न करके क्षत्रियजाति मात्र का ग्रहण करना चाहिए। और राजानः" पद में बहुवचन के प्रयोग से व्यक्ति-भेद से नाटक के नेता चारों प्रकार के स्वभाव वाले हो सकते हैं, एक व्यक्ति में चारों प्रकार के स्वभाव नहीं हो सकते यह बात सूचित की है। क्योंकि एक व्यक्ति में ही चारों प्रकार के स्वभाव का वर्पन 1. उदुतोदात्त - ललित - शान्ता धीरविशेषणाः। वाः स्वभावाश्चत्वारो नेतृणां मध्यमोत्तमाः।। हि नाट्यदर्पप 1/6 .... 2. देवा धीरोटुता, जीरोदात्ता, सैन्येश - मन्त्रिपः। धीरशान्ता वषिम् - विद्या राजानस्तु चतुर्विधाः।। . वही. in
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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