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जैसा कि पूर्वोल्लिखित है कि चार वेदों में से संवाद, गीत, अभिनय तथा रस के गहण द्वारा नाट्य की रचना हुई। अतः इन विषयों तथा इनते। निक्ट का सम्बन्ध रखने वाले अन्य विषय नाट्य के अन्तर्गत आते हैं। यहां उन्ही का विवेचन अभीष्ट है। जहाँ तक रस का प्रश्न है तो उसका स्वतंत्र रूप से विवेचन प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के तृतीय अध्याय में किया जा चुका है।
पात्र-विधान - नाटक की आत्मा नाट्य - रस है। उसे प्राप व गति प्रदान करने वाले नाटकीय पात्र, अर्थात नायक-नायिका दि ही होते हैं, जिनके द्वारा नाट्य-रस आस्वाघ होता है। नाटकीय पात्र के शील-स्वभाव, आहारव्यवहार तथा अवस्था एवं प्रकृति की विभिन्नता व विविधता की पृष्ठभूमि में ही नाटकीय कथा पल्लवित होती है।
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र, सरस्वतीकण्ठाभरप व नाट्यदर्पपादि ग्रन्थों में प्रकृति के आधार पर पात्रों का वर्ग किया गया है। प्रकृति का अर्थ है
प्रकृतिजन्यसहजातस्वभाव।
जैनाचार्य हेमचन्द्र ने पुरुषों व स्त्रियों की उत्तम, मध्यम और अधमइन तीन प्रकृतियों की चर्चा करते हुए केवल गुपमयी प्रकृति को उत्तम, स्वल्पदोष व बहुगुपवाली प्रकृति को मध्यम तथा दोषयुक्त प्रकृति को अधम कहा है। इनमें से अधम प्रकृति में परिगपित किये जाने वाले नायक, नायिका