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________________ 350 अग्वेदोक्त संवादों में नाट्यकला की यथेष्ट सामग्री विद्यमान है। मैक्समलर, लेबी और ओल्डेनबर्ग प्रमृति विद्वानों ने वेदों में प्रयुक्त इस प्रकार के संवादात्मक सूक्तों को आधार मानकर भारतीय नाट्यकला की उत्पत्ति वैदिक युग से ही स्दि की है। ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद में नाट्यसंबंधी विचारों का विस्तार से वर्पन मिलता है। यजुर्वेद की वाजसनेय संहिता के एक प्रसंग से अवगत होता है कि यज्ञ के अवसरों पर नृत्य-गीतादि के लिए सूत और शैलष लोगों की नियुक्ति की जाती थी, जो कि नृत्य एवं संगीत द्वारा नाट्या भिनय करते थे। परवर्ती साहित्य, अष्टाध्यायी, रामायप, अर्थशास्त्र, बौद्धजातक और महाकाव्यों में हमे नाट्यकला के विभिन्न अंगो, उसके पात्रों व पारिभाषिक शब्दों का पूर्ण विवरप प्राप्त होता है। निर्माता के आचार्य भरत जो नाट्य-शास्त्र के रूप में स्मरप किये जाते हैं, उनके अनुसार - ब्रह्मा ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के आधार पर ही पंचम वेद - नाट्यवेद - की रचना की।' इस पंचम वेद में चार अंग पाये जाते हैं -- पाल्य, गीत, अभिनय तथा रस। इन चारों तत्वों को बह्मा ने क्रमशः ऋक्, साम, यजुष तथा अथर्ववेद से गृहीत किया।2 -- ।. नाट्यवेदं तत्वचके चतुर्वेदाइ-गसम्मतम् नाट्यशास्त्र, 1/16 2. जगाह पाठयमग्वेदात सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान रसमायर्वपादपि।। नाट्यशास्त्र ।/17
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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