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________________ 331 स्थितियों मे अर्थान्तरन्यात ही मानते हैं।। 358 दीपक - "प्रकृताप्रकृतानां धर्मैक्यं दीपकम्” अर्थात प्रकृत और अपकृत (उपमेय-उपमान) के धर्मों का एक्य दीपकालंकार है। यह मम्म्ट के दीपकालंकार के लक्षप पर ही आधारित प्रतीत होता है। 2 आ. हेमचन्द्र ने कारकदीपक को लक्षित नहीं किया है, क्योंकि "स्विति कुपति वेल्लति विचल ति" इत्यादि में जाति का ही चमत्कार होता है कारक दीपक का नहीं। 868 अन्योक्ति : “सामान्येविशेष कार्ये कारपे प्रस्तुते तदन्यत्य तुल्ये तुल्यस्यचोक्तिरन्योक्ति:' अर्थात सामान्य, विशेष, कार्य और कारप के प्रस्तुत होने पर तथा तुल्य के प्रस्तुत होने पर दूसरे तुल्य का कथन करना अन्योक्ति है। यह मम्मट के अप्रस्तुतपर्शता के बहुत समीप है।' जिसे मम्मट ने अप्रस्तुतप्रशंसा कहा है वस्तुत: वही आ. हेमचन्द्र के मत में अन्योक्ति है। - - 1. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समथ्यत। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधयेपेतरेप वा।। काव्यप्रकाश, 10/164 2. वहीं, 10/155 3. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 353 + तुलनीय-काव्यप्रकाश 10/150, 151
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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