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________________ शब्दार्थ स्वरूप, लक्ष्य तथा व्यंग्य अर्थ का स्वरूप, पब्दिशक्तिमूलक व्यंग्य में नानार्थनिबन्धन, अर्थशक्तिमल व्यंग्य के वस्तु तथा अलंकार इन दो भेदों तथा इसके पद वाक्य तथा प्रबंध के अनेक भेदों का विवेचन किया है। साथ ही अर्थशक्त्युत्भव ध्वनि के स्वत : संभवी, कविप्रोटोक्तिमात्र निष्पन्न शरीर, इन अथवा कविनिबद्धवक्तृपोढोक्तिमात्रनिष्पनशारीर इन भेदों के कथन को अनुचित बताया गया है। द्वितीय अध्याय में 59 सूत्र हैं, जिनमें रत-विषयक सांगोपांग विवेचन किया गया है। र स-स्वरूप, रस-भेद, रत की अलौकिकता रतांगों का विशद विवेचन, रसाभात व भावाभास आदि इत अध्याय के प्रमुख विवेच्य हैं। अन्त में काव्यभेद - निरूपप के साथ अध्याय की समाप्ति की गई है। तृतीय अध्याय में 10 सूत्र हैं। यह अध्याय काव्य-दोषों से सम्बद्ध है। इसमें काव्य के रतगत, पदगत, वाक्यगत, उभयगत तथा अर्थगत दोषों पर विचार किया गया है। अन्त में तीन सूत्रों में दोष-परिहार की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय में १ सूत्र हैं। काव्यगुणों से सम्बद्ध इस अध्याय में, माधुर्य, ओज एवं प्रसाद इन तीन गुणों के सभेद लक्षण तथा उदाहरप व तत्-तत् गुपों में आवश्यक वर्षों का गुम्पन किया है। पंचम अध्याय में, १ सूत्र हैं, जिसमें अनुपास, यमक, चित्र, श्लेष, वक्रोक्ति तथा पुनरूक्तवदाभास - इन छ: शब्दालंकारों के सभेद लक्षप तथा
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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