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________________ 313 हुये लिखते हैं कि रसपरक होने पर अलइन्कार का यथासमय ग्रहण और यथासमय त्याग कर देने पर तथा अलङ्कार का अत्यन्त निर्वाह न करने पर या अंगत्व में निर्वाह किये जाने पर अलइ. कार रस के उपकारी होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार अलङ्कारों का सन्निवेश रस के उपकारक रूप में ही होना चाहिये, बाधक या तटस्थ रूप में नहीं । अलइन्कारों का सन्निवेश अंग में भी हो तो समय पर ही हो तभी वह रतोपकारी होता है, अन्यथा नहीं। ग्रहीत अलड़. कार को यथासमय छोड़ देने पर भी अलङ्कार रतोपकारी होता है, यथासमय न छोड़ने पर वह रतोपकारी नहीं होता। अलङ्कारों का अत्यन्त निर्वाह भी नहीं किया जाना चाहिये और यदि निर्वाह किया भी जाये तो अङ्गत्वेन ही किया जाना चाहिये । अङ्गत्व में अलङ्कार के निर्वाह न होने पर वह रसोपकारी नहीं होता है। 2 इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने अलङ्कारों के सन्निवेश और उनके रतोपकारी प्रकारों का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। 1. "तत्परत्वे काले ग्रहत्या गयोर्ना ति निवहिप्यइगत्वे रसोपकारिणः । काव्यानु, 1/14 2. " तत्परत्वं रसोपकारकत्वेनालइ कारम्य निवेशो, न बाधकत्वेन, नापि ताटस्थ्येन । अङ्गत्वेऽपि कालेऽवसरे ग्रहणं । गृहीतस्याप्यवसरे त्यागो। नात्यन्तुं निर्वाहो । निर्वाऽिप्यङ् गत्वं । वही, वृत्ति व उदाहरण पृ. 35-41
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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