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________________ 281 अलंकार के भेद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि काव्य के आत्मभत रसादिरूपध्वनि के आश्रित रहने वाले धर्म गुप होते हैं और अलंकार काव्य के अंगभत शब्द तथा अर्थ के धर्म होते हैं। इस प्रकार आनन्दवर्धनाचार्य ने गणों को रताश्रित तथा अलंकारों को शब्द तथा अर्थ के आश्रित धर्म मानकर उनके भेद का उपपादन किया है।' आ. मम्मट ने इनका ही अनुसरण किया है तथा उभट व वामन से पृथक गुणों को रस के स्थिर ( अचल ) धर्म माना है। गुप का लक्षप देते हुए वे लिखते हैं कि - आत्मा के शौर्यादि धर्मो की तरह काव्य में जो प्रधान रस के उत्कर्षाधायक तथा अचल स्थिति वाले होते हैं, वे गुण कहलाते हैं। प्रायः काव्यप्रकाशकार का अनुसरप करते हुए आ. हेमचन्द्र ने रस का उत्कर्ष करने वाले हेतुओं को गुप कहा है। ये गुप उपचार( गौपरूप) से शब्द और अर्थ के उत्कर्षाधायक होते हैं। 1. तमर्थमवलम्बन्ते येऽपि.गनं ते गुपाः स्मृताः। अंगाप्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः क्टकादित्।। ध्वन्यालोक, 2/6 2. ये रसत्याइिगनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः। उत्कर्षहतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुपाः।। काव्यप्रकाश, 8/66 3. रसत्योत्कर्षापकर्षहित गुपदोषौ भक्या शब्दार्थयोः। काव्यानुशासन, 1/12
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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