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________________ 278 कम पुनरूक्त, अश्लील, और विमुक्तपुनराकृत इन अर्थदोषों की गुप्ता पदर्शित की है। तथा समाप्तिपुनरारब्ध, न्यूनता एवं दुःअवता इन अर्थदोषों की दोषाभावता प्रदर्शित की है। रसदोषों के परिहार हेतु उनका कथन है कि विरूद्ध संचारिभाव आदि का बाध्यत्वेन कथन, विरूद्ध रतों का भिन्न आय में वर्पन, मध्य में रस का समावेश, स्मृति रूप में वर्षना अथवा अंगा गिभाव रूप में वर्पन आदि होने पर रसदोषों का निराकरण हो जाता है। यहाँ इन पर आ. मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। आ. वाग्भट द्वितीय ने दोष - परिहार का पृथक् विवेचन न करके दोष - विवेचन के ही प्रसग में जहाँ उचित समझा है, विवेचन किया है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किया गया रस-दोषे विवेचन, पूर्वाचार्यों का अनुकरप होते हुए भी उनके काव्यशास्त्रीय ज्ञान का परिचायक 1. वही, पृ. 175-176 2. वही, पृ. 177 3. वही, पृ. 5/21-23
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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