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आनन्दवर्धन के “अतौचित्या दृते नान्यस्य रसम ङ्गस्य कारणम* कथन का अनकरण करते हुए उनके मत का समर्थन किया है। आ. नरेन्द्रप्रभतरि ने आ. मम्म्ट का ही अनुकरप किया है। शेष वाग्भट - प्रथम, वाग्भट - द्वितीय एवं भावदेवसरि ने रसदोषी का कोई उल्लेख नहीं किया है।
दोष-परिहार - पूर्वोल्लिखित दोषों में से कतिपय दोष वक्तादि के औचित्य से दोषामावरूप या गुण बन जाते हैं। इसी को दोष-परिहार
कहा गया है।
___आचार्य मम्मट ने दोष-परिहार का विवेचन करते हुए लिग है कि प्रसिद्ध अर्थ में नितुता दोष नहीं होता है और अनुकरप में सभी श्रुतिकटु आदि दोषों की अदोषता संभव है। इसी प्रकार वक्तादि के औचित्य से दोष कहीं गुप हो जाते हैं और कहीं न दोष होते हैं और न गुणा'
जैनाचार
पायः मम्मट को आधार बनाकर अपना दोष
परिहार विवेचन किया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने तत्तदोषों के प्रत्युदाहरपों की चर्चा दोष - निरूपप प्रसंग में एक साथ की है। साथ ही अन्त में निष्कर्षतया तीन सूत्रों द्वारा उनका अलग से प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं कि अनुकरप करने
• काव्यप्रकाश, 7/59