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________________ 255 1108 विरुद्धव्यंग्यत्व - "विल्दं व्य जयं यस्य तदावो विरूद्रव्यंग्यत्वम्" अर्थात विरुद्ध व्यंग्य का भाव ही उक्त दोष है। यथा - "लग्नं रागावृता गया - - - - - - - - - - -- ।' इत्यादि में "विदितं तेऽस्तु' (तुम्हें मालूम होना चाहिए) इससे “लक्ष्मी उसको छोड़ रही है। इस विरूद्ध व्यंग्य की प्रतीति हो रही है, अतः यहाँ विरुद्धव्यंग्यत्व दोष है। 1128 प्रसिद्धिविरुदत्व - "प्रसिदया विद्या भिश्च विरुद्धत्वम्। तत्र प्रसिद्धि विद्वत्वं" अर्थात प्रसिद्धि के विरुद्ध कथन करना उत दोष है । यथा - इदं ते केनोक्तं कथय कमलाताघदने, यदेतस्मिन् हेम्नः क्टकमिति धत्से सुलु धियस। इदं तद दुः साध्यक्रमपपरमास्त्र स्मृतभुवा, तव प्रीत्या चक्रं करकमलमले विनिहितम्।।2 यहाँ काम का चक्रलोक में अप्रसिद्ध होने से दोष है। अथवा "उपपरितरं गोदावर्याः ----- ।' इत्यादि में पैरों के प्रहार से अशोक में पुष्पों का निकलना ही कवियों में प्रसिद्ध है, अंकुरों का निकलना नहीं । अत : अंकुरोद्गम • कान्यानु, पृ. 267 2. वही, पृ. 267 3 वही, पृ. 268
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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