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________________ 253 18 अक्रमत्व - “प्रधानन्यार्थस्य पूर्व निर्देशाः क्रमस्तभावोऽ क्रमत्वम्" अर्थात प्रधान अर्थ का पूर्व निर्देशा करना क्रम है और उसका अभाव अक्रमत्व दोष कहलाता है। मम्म्ट ने इते दुष्कम कहा है। इसका उदाहरप हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रकार दिया है - "तुरगमयदा मातडं में प्रयच्छ मदालसम्' यहाँ “मातगं"का पहले निर्देश करना उचित था । अथवा कम के अनुष्ठान का अभाव अक्रमत्व है ( कमानुष्ठानाभावो वाक्रमत्वम") यथा - 'कारा विक्रम राउरं - इत्यादि। आचार्य हेमचन्द्र ने कहीं - कहीं अतिशयोक्ति में इसके गुप हो जाने का उदाहरप भी साथ - साथ दिया है। जैसे - "पश्चात्पर्यत्य किरपानुदीपं चन्द्रमण्डलम्” इत्यादि। 2 ११४ पुनरूक्तत्व - "द्विरभिधानं पुनरूक्तम अर्थात एक ही अर्थ का दो बार कथन करना पुनरूक्त दोष कहलाता है। यथा प्रसाधितस्याथ मधुद्विषोऽभदन्यैव लक्ष्मी रिति युक्तमेतत्। वपुष्यशेषेऽखिललोककान्ता सानन्यकाम्या झुरतीतरा तु ।।* इस प्रकार कहकर इसी अर्थ को पुनः दूसरे लोक द्वारा कहते - - - - - - - - - - - 1. वही, पृ. 264 2. वही, पृ. 264 * काव्यानु, वृत्ति, पृ. 264 * वही, पृ. 26
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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