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की श्री प्रतीति होती है, अत: अश्लीलत्व दोष है।
368 साकाइ.४ - साकासत्वम् अर्थात आकांक्षायुक्त होना ही साकाङ्क्षत्व दोष है।
यथा
अर्थित्वे प्रक्टीकृतेऽपि न फलप्राप्तिः प्रभो प्रत्युत, द्वान् दाशरथि विरुद्धचरितो युक्तस्तया कन्यया। उत्कर्षञ्च परस्य मानयशसो विसंतनं चात्मनः, स्त्रीरत्नञ्च जगत्पतिशमुखो देवः कयं मृष्यते।।'
यहाँ "स्त्रीरत्न के पश्चात "उपेक्षित" इस पद की आकांक्षा रहती है। परस्यका "स्त्रीरत्न से सम्बन्ध करना उचित नहीं है, क्योंकि "परस्य" का सम्बन्ध उत्कर्ष के साथ पहले ही हो चुका है।
इसी प्रकार -
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गृहीतं येनाप्तीः परिभवमयान्नोचितमपि प्रभावाधात्याभून्न सुलु तव कश्चिन्न विषयः। परित्यक्तं तेन त्वमति सुतोकान्न तु मयाद विमोक्ष्ये शस्त्र। त्वामहमपि यतः स्वस्ति भवते।।2
. वही, पृ. 262 - वही, पृ. 263