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- उपेक्षादि उपकार अनुभाव है। निर्वेद-मति - स्मृति-धृति आदि इसके
व्यभिचारिभाव है । '
नरेन्द्रप्रभतर 2 एवं आ. वाग्भट द्वितीय का शान्त-रत विवेचन हेमचन्द्र के समान है।
स्थायिभाव : सामान्यतः स्थायिभाव उन्हें कहा जाता जो सहृदय के हृदय में सदैव विद्यमान रहते हैं। इनके स्थायी रूप से विद्यमान रहने के कारण ही इन्हें स्थायिभाव कहा जाता है। ये ही विभावादि का संयोग पाकर रसानुभूति कराते हैं। अन्य भावों से स्थायिभावों की यही महती विशेषता है कि अन्य सभी भावों का आगमन (उदय) होता है और एक निश्चित समय तक उपस्थित रहकर पुनः विलीन हो जाते हैं, किन्तु स्थायिभाव सदैव सहृदय के हृदय में विद्यमान रहते हैं। उनका यह स्थायित्व ही उन्हें स्थायिभाव की संज्ञा से विभूषित कराता है। आचार्य भरत के अनुसार जिस प्रकार मनुष्यों में राजा और शिष्यों में गुरू श्रेष्ठ होते हैं, उसी प्रकार समन्त भावो में स्थायिभाव महान होता है। 4 उसके अनुसार
1. हि. नाट्यदर्पण, 3/20 व विवरण
2. वैराग्यादिविभावोत्थो यम्प्रभृतिकार्यकृत् निर्वेदप्रमुयोर्जस्वी, शमः शान्तत्वमश्नुते
अलंकारमहोदधि, 3/24
3.
4.
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काव्यानुशासन
नाट्यशास्त्र, 7/8
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वाग्भट. पृ. 57