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आदि अनुभाव तथा धृति, स्मृति, निर्वेद, मति आदि व्यभिचारिभाव का समावेश वृत्ति में कर लिया गया है।' आ. हेमचन्द्र ने तृष्पाक्षय को ही शम कहा है। इस सन्दर्भ में उनकी विवेक टीका भी बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने शम की व्युत्पत्ति तथा विशेष अर्थ स्पष्ट किया है तथा भरतमनि के द्वारा उपात्त निर्वेद स्थायिभाव की मान्यता का खण्डन करते हुए शम को ही शान्तरस का स्थायिभाव सिद्ध किया है। उनकी मान्यता है कि शम और शान्त को एकार्थक नहीं समझाना चाहिए। हास और हास्य की भांति उसकी साध्यता सिद्ध होती है । उन्होंने लिखा है कि लौकिक और अलौकिक एवं साधारप और असाधारप के वैलक्षण्य ते दोनों अलग - अलग सिद्ध होते हैं।
आ. हेमचन्द्र शान्तरस को अन्य रसों से पृथक, तिन करते हुए लिखते हैं कि इसका विषय जुगुप्सा रूप होने से उसका वीभत्स में अन्तमाव करना उचित नहीं है क्योंकि शान्तरस की जो जुगुप्सा (वैराग्य या संसार से विरक्ति) है, वह व्यभिचारिरूप से होती है। स्थायीरूप में नहीं। यदि जुगुप्सा को स्थायी मानकर पलपर्यन्त उसका निर्वाह किया जाएगा तो शान्तरस का समल विनाश हो जाएगा । अतः शम व जुगुप्सा दोनों भिन्न
1. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 120 2. तृष्पाक्षयरूपः शमः - वही, वृत्ति, पृ. 121 3. काव्यानुशासन, टीका, पृ, 121-123