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अपस्मार, मरप, त्रास, चापल, आवेग, दैन्य, मोहादि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र की मान्यतानुसार स्त्रियों व नीच प्रकृति के लोगों में भय स्वाभाविक रूप में और उत्तमप्रकृति के लोगों में कृतक (बनावटी) रूप में पाया जाता है।' आचार्य मम्मट के समान आचार्य हेमचन्द्र ने भी "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" से "गीवाभंगा भिरामं ... इत्यादि पलोक उद्धत करके भयानक रस के उदाहरप के रूप में प्रस्तुत किया
रामचन्द्र गुपचन्दानुसार पताकारूपी कीर्ति से युक्त भीषप-संगाम, विकृत शब्द, पिशाचा दि का दर्शन, गाल, उलूक आदि का ब्द, भय, घबराहट, निर्जन वन, चोर व अन्य भंयकर दोषों के प्रवप दर्शनादि विभावादिकों से भयानक रत अभिव्यक्त होता है। स्तम्भ, कम्पन व रोमांचा दि इसके अनुभाव हैं। मुख व दृष्टि विकार, वैवर्ण्य, मादि भी इसके अनुभाव हैं। शंका, मोह, दैन्यावेग, चपलता त्रास आदि इसके व्यभिचारी भाव है।
नरेन्द्रप्रभतरि का कथन है कि कूर-स्वर अवपादि विभाव, कम्पनादि अनुभाव व शंकादि व्यभिचार भावों से युक्त भय नामक स्थायिभाव वाला
• काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 118 2. हि. नाट्यदर्पण, 3/17 3 हि नाट्यदर्पप, विवरप, पु, 315-316