SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 140 रस - भेद रस - भेदों के सन्दर्भ में साहित्यशास्त्रीय प्राचीन आचार्यों में बहुत मतभेद रहा है। कतिपय आचार्य श्रृंगार हास्य, करूप, रौड़, वीर, भयानक, वीभत्स व अमृत इन आठ रस - मेदों को स्वीकार करते हैं। अन्य आचार्य उपर्युक्त रस के आठ मेदों में शान्तरस का समावेश करते हुए रसों की संख्या नौ मानते हैं तथा कुछ लोग नाटक में शान्तरस की स्थिति नहीं मानते हैं। नाट्यशास्त्र के प्रपेता भरतमुनि ने श्रृंगार - हास्य आदि आठ रसों को नाट्य में स्वीकार किया है।' आचार्य मम्मट ने भरतमुनि की कारिका को यथावत् उद्धत करते हुए 9वें शान्तरस की परिगफ्ना अलग से की है। संभवत: इसका कारण यह है कि "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः' नाट्यशास्त्र के इस कारिकांश को लेकर बहुत विवाद रहा है। भामह व दण्डी आदि ने 8 रसों का प्रतिपादन कर शान्तरस नहीं माना है। उमट, आनंदवर्धन व अभिनवगुप्त ने स्पष्ट रूप से शान्तरस का प्रतिपादन किया है। धनंजय व धनिक ने शान्तरस का खण्डन करते हुए लिखा है कि नाट्य में शान्तरस होता ही नहीं है। 1. श्रृंगारहात्यकरूपरौद्रवीरभयानकाः । वीभत्सान्भुतसंज्ञा घेत्यष्टौ नाट्ये रताः स्मृता।। नाट्यशास्त्र 6/15 काव्यप्रकाशं 4/29 3 वही, 4/35 ५. काव्यप्रकाश, आचार्य विश्वेश्वर, पृ. ।।6 5. शममपि केचित्पाहुः पुष्टिर्नाट्येषु नैतत्य। दशरूपक 4/33
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy